Friday, 9 May 2014

ऐ कागज कि कष्टी …

ऐ  कागज की कष्टी,
तू जा इस घर से उस मकां तक
सडक के उस पार …
मेहबूब ई हमसफर के कदमोतले …
दिल ए पैगाम लेकर … हा रु ब रु हो …
एक गुफ्तचर  कि तरह …
अब ध्यान से सुनो
मेरी आवाज को कानोमे बुनो …
ठीक बीच सडक मे है भवर
जो तुम्हे ले जायेन्गा पिताजीके ओर मोडकर   …
या फेर सकता है मेरी ओर ,
हो सकता है  डुबा दे साथ तुम्हे लेकर …
मुझे डर नही आपका डूबके खुदखुशी करणे का ?
 फ़कत… है  डर इस बात का ?
उसपर लिखा है  एक  नाम
ठीक  मेरे नाम के आगे है उसका नाम …
एक नये रिश्ते कि शुरवात लिये  …
मेरे मंजिल ई हमसफर के लिये …

-प्रवीण बाबूलाल हटकर    

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