Saturday, 8 February 2014

शायद …

तेरी यांदोके रेगीस्तान मे
चल पडा हु, 
अपनेही सोच के सहारे 
गिरते, लडखदाते, फिर संभालते कदमोसे
तेरी ओझलसे अपनेआप मे गुमनामसे साये के पिच्छे पिच्च्छे 
चल रहा हु … 
शायद अंजान हु मै 
अंजाम ए दासतासे 
क्या मै भूल गया हु 
अपनेही अस्तित्व को 
जो कभी अपनेहिआप से 
रुबरु था आपसे मिलने के पेहले 
जी रहा था, बस जिने के लिये 
ओर आज आपसे होकेभी नही हु मै उसमे कही  
ऐ पेहली, जी रहा हु मै मर मर के 
अब तो ऐसे लग रहा है 
के मै मर जाऊ 
शायद हा शायद … 
तेरे बगेर मै  मर के जी लु जरा… 

-प्रवीण बाबूलाल हटकर 

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